ARTS-AND-LITERATURE

दुनिया मेरे आगे: हर सुर का होता है संदेश, फेरीवाले से लेकर बड़े संगीतकार की है अपनी कला

जब हम किसी कलाकार को सहजता से कोई वाद्य यंत्र बजाते हुए देखते हैं तो हमें यह गलतफहमी होने लगती है कि हम भी इसे आसानी से बजा सकते हैं। जबकि कलाकार की निपुणता के पीछे उसकी अथक मेहनत, साधना और समर्पण के अलावा लगातार अभ्यास की लंबी प्रक्रिया जुड़ी हुई होती है, तब जाकर कलाकार का प्रदर्शन हमें बड़ा सहज लगने लगता है। वाद्य यंत्रों में सबसे सुलभ तरीके से उपलब्ध होने वाले यंत्रों में हम बांसुरी को मान सकते हैं। हमने बचपन से ही बांसुरी को अक्सर मेलों में, रोड पर घूमते फेरी वालों को बजाते और बेचते आसानी से देखा है। बेचने वाला व्यक्ति बड़ी ही कुशलता के साथ उसके भीतर फूंक मारकर सुरीली धुन बजाता रहता है। बांसुरी की मधुर धुन सुनते हुए एक आम फेरीवाले को बजाते देख इसे बजाना बड़ा सरल लगता है। उसे देखकर बांसुरी खरीदने का मोह हमेशा बड़ों और बच्चों के बीच समान रूप से बन जाता है। खरीद कर घर ले आने के बाद पता चलता है कि इसके स्वरों में मधुरता लाना उतना सरल भी नहीं जितना हम समझ लेते हैं। इसे सीखने के लिए बेहद मेहनत और अभ्यास की जरूरत है। क बाहरी तौर पर अगर हम देखने की कोशिश करें तो बांस से बनी बांसुरी में कई छिद्र होते हैं, जिसे बड़ी ही कुशलता के साथ सही समय और क्रम में खोलना और बंद करना होता है। सही और रचनात्मक क्रम से जब इन्हें खोला और बंद किया जाता है, तब मधुर संगीत वातावरण में प्रवाहित होने लगता है। मगर बिना पर्याप्त समझ के उसके भीतर हवा फूंक देना मात्र कर्कश और बेसुरी ध्वनि ही उत्पन्न करता है। यहां तक कि उसके भीतर हवा फूंकने का भी सही तरीका भी सीखना समझना बेहद जरूरी है। फूंक मारना तो बस शरीर में प्राण फूंकने के समान ही कहा जाएगा, लेकिन उसके वादन की सफलता तो उसके रस या संगीत निष्पादन की सार्थकता और लयात्मकता में निहित होगी। श्रेष्ठ परिणाम के लिए जरूरी होगा कि हम जानें कि उसका कैसे उपयोग करना है कि सही तरंगें खुद के भीतर और वातावरण में उत्पन्न हो सकें, जो जीवन को सार्थक और रसमय बना सके। यह सीखने और अभ्यास का विषय है। दुनिया मेरे आगे: कला का असली लक्ष्य, सौंदर्य से आगे संदेश और बदलाव तक पहुंचने की चुनौती अगर मनुष्य को हम एक मानवीय बांसुरी मान लें तो हमारी इंद्रियां बांसुरी के उन छिद्रों की भांति हैं, जिनके सही उपयोग से सबके जीवन में मधुर संगीत का मधुर रस घोल सकते हैं। भले ही हम धाराप्रवाह बोल सकते हैं, पर बोलने से पहले यह बहुत जरूरी है कि हम बोले गए शब्दों और विचारों की उपयोगिता की ठीक से जांच कर लें, हमारे विचारों, हमारी बातों की सार्थकता को परख लें कि क्या हमारे विचार जनहितकारी हैं, क्या यह स्वस्थ वातावरण और समाज बनाने में सहायक हैं, क्या यह सत्य की कसौटी पर खरे उतर चुके हैं। अगर ऐसा नहीं है तो फिलहाल हमें बोलने से रुक जाना चाहिए। हमें बुरा और निरर्थक बोलने की आवश्यकता नहीं है। हमारा मकसद जीवन में सुखद संगीत प्रवाह करने का है। जो विचार ऐसी सकारात्मक और स्वस्थ तरंगें उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है, उन पर रोक लगाना ही उचित है। इसी तरह, वही बातें सुननी चाहिए जिसमें दूरदर्शिता हो और वह विवेकपूर्ण हो। उसमें सभी का हित सम्मिलित हो, प्रगतिशील समझ हो, वह संकीर्णता और संकुचित विचारधाराओं से दूर हो। ऐसे विचार जो एकजुटता और ईमानदार उम्मीदों से भरे हुए हों। आत्मीयता और स्नेह से भरपूर हों। उसके अतिरिक्त वैसी बातें, जो जनकल्याण और स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक न हो, सद्भाव की भावना से प्रेरित न हो, उन्हें सुनने की आवश्यकता नहीं है। हमें ऐसी बातों के लिए गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहिए कि वे अपने बेसुरेपन से जीवन संगीत को भ्रष्ट कर सकें। हमारे कानों को उन सब निरर्थक स्तरहीन बातों के लिए बंद कर लेने में ही समझदारी है, ताकि अच्छी, स्वस्थ बातों का प्रवाह बिना व्यवधान के जारी रह सके। खुश और आनंद में रहना है तो प्रशंसा के साथ आलोचना को भी स्वीकारें, आत्मबल से तय करें अपनी राह! जब हमें कुछ बुरा घटित नजर आ रहा हो और उसे हम केवल देखते जा रहे हैं, ऐसे में हम मानो बांसुरी के किसी एक ऐसे छेद को लंबे समय के लिए खोल रहे होते हैं जिसे वास्तव में बस छूकर हमें अन्य छिद्रों को सक्रिय करने की जरूरत थी। इस तरह के अनभिज्ञ नौसिखिया समझ से हमारी जीवन की मधुर धुन कर्कश और बेसुरी होने लगती है। ऐसे समय में जब हमारी आंखें कुछ बुरा होते हुए अन्याय और शोषण को घटित होता देख रही हों, तब हमारी दूसरी इंद्रियों को काम पर लगाने की जरूरत को समझना चाहिए। केवल मूकदर्शक बने रहने के बजाय, दृढ़ता से प्रतिरोध दर्ज कराना होगा। उन कानों को भी खोलने का पुरजोर प्रयास करना उचित होगा, जहां तक यह जरूरी आवाज पहुंचना चाहिए। यह प्रयास तब तक करते रहना जरूरी है, जब तक समाज में फिर से मधुर स्वर लहरियों के लिए वातावरण नहीं बन सके। इस वाद्य को साधने और बजाने की कला की तरह ही जीवन में नैतिकता और सही मूल्यों को जगह देकर और अनैतिकता के प्रवेश के दरवाजे बंद कर जीवन-सुर को साधा जा सकता है, मधुर तान छेड़ी जा सकती है। यह वही कला है, जो नियमित साधना और अभ्यास के जरिए पाई जा सकती है। शायद इसीलिए बहुत समय पहले गांधीजी ने हमें हमारे अस्तित्व की संभावनाओं को उसकी पूर्णता में महसूस करने के लिए उसका सही उपयोग करने के लिए यह आदर्श सरल युक्ति सुझाई थी ‘बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो’। इस बोध वाक्य से प्रेरणा लेकर हम आज से सही दिशा में आगे बढ़ने की शुरुआत कर सकते हैं। निश्चित ही बांसुरी बजाते कलाकार की तरह ही जीवन की सुरीली तान छेड़ने में महारथ हासिल कर लेंगे। None

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