मनुष्यता को बचाने की लड़ाई हर सभ्यता में दर्ज है। वहां से चलते हुए मनुष्य आधुनिक होते हुए आज तकनीकी पर इतना निर्भर हो चला है कि अपने आपको ज्यादा से ज्यादा आराम देना चाहता है। मगर इसके समांतर हुआ क्या है? ऐसा लगता है कि मशीनी बोझ के तले सांस ले रहा इंसान आज खुद भी एक मशीन-सा ही हो चला है। ऐसी मशीन, जो बढ़िया चमक-दमक के साथ चलती जाती है। उसकी अपनी कोई विचारधारा नहीं होती। उसमें न अहसास होते हैं, न भावुकता। यहीं पर दिखावा नामक नकारात्मक सोच बलवती हो जाती है। आज के इस अनूठे समय में बहुत सारे लोगों के पास आडंबर और शोशेबाजी के लिए तो समय निकल आता है, लेकिन आत्मविकास और आत्म-उन्नयन के नाम पर उनको समय की कमी महसूस होती है। अपनी सोच और जीवनशैली को दुरुस्त करने की बात भी उनसे कही जाए तो वे टाल दिया करते हैं। एक बार आभासी दुनिया के झरोखे से देख लिया जाए तो पता चलेगा कि मनुष्य के पास फालतू और अनर्गल चीजों के लिए उमंग है और फुर्सत भी। मेट्रो में रील बनाई जा रही है। रेलवे प्लेटफार्म पर कुछ लोग नाच-कूद रहे हैं। मगर प्लेटफार्म पर चाय-समोसे बेच रही किसी बुजुर्ग महिला से कोई इतना भी नहीं पूछना चाहता कि माताजी, आपको भरण-पोषण के लिए हर रोज इतना काम करना पड़ रहा है… बताइए अपनी कहानी… अपना दुख… क्या हम कुछ कर सकते हैं..! ऐसी तकलीफ कोई नहीं उठाना चाहता। कोई गलती से भी इस मजबूरी से गुजर रही महिला का दुख या कष्ट नहीं बांटना चाहता है। हमारे बुजुर्ग कहते थे कि अपने आसपास जो भी घटित हो रहा है, उसे गौर से देखा करो। उसका तुमसे भी कोई नाता है। मसलन कहीं भूख-गरीबी बीमारी है तो अनदेखा मत करो। कोई अगर करीब का परेशान है तो उसे सिर टिकाने के लिए अपना कंधा दो। उसका मन हल्का होने दो। अपनी तरफ से कुछ भी योगदान हो, जिससे आसपास का परिवेश सौहार्दपूर्ण हो, तो ऐसा किया करो। मगर इन बेहद जरूरी मुद्दों को खंगालने, संवारने, सुधारने, फैलाने और उस पर विचार करने आदि के लिए लोगों के पास वक्त नहीं है। कई बार बेबसी होती है, कई बार चमक-दमक में फंसने के बाद जरा सरल होकर जीवन की गली से होकर गुजरने का भाव भी पैदा ही नहीं होता। हालांकि संसार को आज संवेदनशील तथा मानवीय भावना के विकास की बहुत आवश्यकता है, लेकिन मतलबीपन, तंगदिली या आडंबर के खेल में अत्यधिक रमने के कारण हम इस बात पर विशेष या उतना ध्यान नहीं दे पाते, जितना इस संसार को अच्छा बनाने के लिए जरूरी होता है। निश्चित रूप से मानव कहलाने योग्य वे ही हैं जो बात नहीं, कर्म करके किसी दुखी के चेहरे पर हंसी और खुशी लाने की सोच रखते हैं। आज तो पाठशाला और पाठ्यक्रम भी इस तरह के कारोबारी हो गए हैं कि पांच साल का बालक भी जल्दी-जल्दी रुपए कमाने के सपने देखता है। किसी ने कितनी प्यारी बात कह दी है कि ऐसा कोई विद्यालय हो तो बताना, जहां बच्चों को पैसा कमाने की मशीन नहीं, संस्कार, सुविचार और विश्व बंधुत्व का पाठ पढ़ाया जाता हो। आज के असुरक्षित सामाजिक-आर्थिक परिवेश में अभिभावक भी अपनी संतान को चट पढ़ाई और पट दौलत का ही सूत्र रटाए जाते हैं। यह नहीं सोचते कि अपनी औलाद को ऐसा बनाया जाए, जहां मन और आत्मा अच्छे विचारों के आधार पर पुष्पित और पल्लवित हो। कितने ही अभिभावक अपने किशोर होते बच्चे से यह कहते हुए मिल जाते हैं कि बेटा तुम किसी पर भरोसा न करना… किसी की बात में मत आना। इस धरती पर तुम ही मनुष्य हो, बाकी की मनुष्यता तो खो गई है। मगर यह सब रटाते हुए अभिभावक मन ही मन यह कामना भी करते रहते हैं कि उनके बच्चे पर सारा संसार भरोसा करे। उनके बच्चे को सबसे ईमानदार और सच्चा मान ले। यह कैसी उलटबांसी है। जिस पेंसिल से वे बाकी लोगों का खराब छवि बनाकर दिखा रहे हैं, जरा उसी से अपनी शक्ल भी बनाकर ठीक से देख लेते। इसीलिए यह जगत विरोधाभास का शिकार हो रहा है। हम सब अच्छी और सुखद दुनिया तो चाहते हैं, लेकिन उसे तैयार करने के लिए कौन, कैसे बीड़ा उठाएगा, यह सवाल दूसरे के पाले में ही जाता हुआ प्रतीत होता है। ‘येन-केन-प्रकारेण मेरे पास पर्याप्त दौलत आ जाए, चुपचाप से छल कपट कर लूं… मेरा मतलब सिद्ध हो जाए, मुझे लाइन में इंतजार न करना पड़ जाए… मेरे घर के सामने कचरा न हो… मैं बाहर से अच्छा और संभ्रांत नजर आऊं..!’ इस तरह के चिंतन मनन और ऐसी मनोवृत्ति ने ही आज की सुविधाभोगी पीढ़ी को भर-भर कर अवसाद, कुंठा और उदासी दी है। एक बार फिर से हर घर में कबीर को सुनना चाहिए कि मानव अपने लालच के फंदे में फंसी वह मछली है जो जल में रहकर भी प्यासी है। यह अपने भीतर झांकने और आत्मचिंतन के लिए समय निकालने का समय है। हमें जाग जाना चाहिए। हम किस तरह की दिनचर्या में जी रहे हैं। मतलबीपन को अपनी सोच से उखाड़ फेंकने का संकल्प आज ही लेना चाहिए। इसे हर समय याद करने की जरूरत है कि मनुष्य वही है, जो मनुष्य के लिए मरे। None
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