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दुनिया मेरे आगे: रिश्तेदारी से अधिक अपनेपन के रिश्ते होते हैं मजबूत, आपाधापी के दौर में आत्मकेंद्रित होना नहीं है सही

बिना किसी भूमिका के यह सवाल किया जाए कि काम से काम रखने वाले कितने काम के होते हैं, तो निश्चित ही इसका सहज रूप से सटीक जवाब दे पाना कठिन होगा। दरअसल, हम अपने सामाजिक जनजीवन में परस्पर रिश्ते-नाते की डोर से बंधे हुए होते हैं। हमारी अपनी प्रतिबद्धता मात्र परिजनों के प्रति ही नहीं होती, बल्कि बने हुए रिश्तों को बनाए रखने के प्रति भी होती है। चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, लिहाजा किसी भी स्थिति में वह एकाकी जीवन नहीं जी सकता। व्यावहारिक रूप से जो केवल अपने काम से नाता रखते हैं, रिश्तों के अपनेपन की अनूठी अनुभूति से विरक्त रहा करते हैं। विपरीत परिस्थितियों में ही अपनों के अपनेपन का बोध हुआ करता है। सीधी-सी बात है कि किसी के लिए हम काम के होंगे, तो वे भी काम के होंगे। वर्तमान परिदृश्य में रिश्तों को सहेज कर रखना, जमाने में निश्चिंतता से जी सकने का मार्ग प्रशस्त करता है। कुछ रिश्ते स्वाभाविक रूप से तो कुछ रिश्ते व्यक्तिगत पहल या सामाजिक कारणों से बनते हैं। कभी-कभी कुछ रिश्ते परस्पर व्यावसायिक जरूरतों के आधार पर भी बन जाते हैं। हम चाहे हर स्तर पर आत्मनिर्भर हों, लेकिन विपरीत परिस्थितियों में हम अपनों पर आश्रित हो जाने की स्थिति में भी आ सकते हैं। किसी भी प्रकार की घटना-दुर्घटना के दौर में निकटतम रिश्तों से अधिक अपनेपन के रिश्ते संबल प्रदान करते हैं। प्रथम दृष्टया यही संकटमोचक सिद्ध होते हैं। इसलिए रिश्ते को सहेज कर रखना वर्तमान दौर की प्रथम जरूरत है। वास्तव में रिश्तों के प्रति हमें संवेदनशील होना चाहिए। वर्तमान आपाधापी के दौर में हमें किसी भी स्थिति में आत्मकेंद्रित स्वरूप में जीवनयापन नहीं करना चाहिए। बेहतर हो कि हम रिश्तों की अहमियत पर पर्याप्त ध्यान देने का प्रयास करें। हम नहीं जानते कि हमारा भविष्य भी वर्तमान की तरह होगा। यह भी नहीं जानते कि भविष्य के प्रति संजोए गए सपने भी साकार सिद्ध होंगे या नहीं! दरअसल, परिस्थितियां एक समान नहीं होतीं और न ही जैसा हम सोचते हैं, वैसी ही होगी। संकटकालीन परिस्थितियों में अपनों का अपनापन मनोवैज्ञानिक रूप से हमें संकट का सामना करने का सामर्थ्य देता है। केवल अपने काम से काम रखना एक प्रकार से असहिष्णुता की निशानी है। इस स्थिति से बचने का प्रयास किया जाना चाहिए। यथाशक्ति एक दूसरे की मदद भी मनोवैज्ञानिक रूप से अद्भुत सामर्थ्य प्रदान करती है। प्रकृति के साथ सृजन का सरोकार, मशीनी युग में लोगों का रचनात्मक होना अनिवार्यता एक प्रकार से हम अपने जीवन में सकारात्मक के साथ-साथ नाना प्रकार की नकारात्मक परिस्थितियों के निशाने पर भी आ सकते हैं। समय कभी कुछ कह कर नहीं आता। हमें चाहिए कि चाहे हम काम से ही काम रखते हों, लेकिन हमारे अंत:करण में परदुखकातरता के भाव अवश्य विद्यमान होना चाहिए। हम सामाजिक प्राणी होने के नाते समाज के बीच जीवनयापन करते हैं। स्वाभाविक है कि हम एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। अगर हम किसी के काम आएं तो अन्य कोई हमारे काम आएंगे। यही बेहतर जीवन शैली का सार तत्त्व है। हमें चाहिए कि एक दूसरे के दुख और तकलीफ को हम गंभीरता से समझने का प्रयास करें। किसी के काम आना बहुत काम आता है। वर्तमान दौर में प्रबल भौतिकवाद के चलते तमाम तरह के रिश्तों का दायरा सिमटता जा रहा है। संयुक्त परिवार भी धीरे-धीरे विघटित होते जा रहे हैं। वरना एक समय था, जब संयुक्त परिवार हुआ करते थे, तब स्वाभाविक रूप से परिवार में ‘संगठन की शक्ति’ का बोध हुआ करता था। विपरीत परिस्थितियों में भी पारिवारिक सदस्यों का आत्मबल कभी कम नहीं होता था। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में परस्पर संबंध विकसित करने में भावनात्मक लगाव कुछ इस कदर होता था कि हर एक रिश्ते को शिद्दत के साथ अपनाया जाता था। सामाजिक रिश्ते भी बखूबी निभाए जाते थे। परिस्थितियां चाहे जैसी भी हो, लेकिन कभी किसी को अकेलेपन का एहसास नहीं होता था। हर किसी की अपनी-अपनी दुनिया, लोग हो जाते हैं मनोरोग का शिकार आज स्थिति यह है कि इस बात की कोई पक्की गारंटी नहीं दी जा सकती कि निकटतम पारिवारिक रिश्तों का निर्वहन मान-सम्मान और मर्यादा के अनुरूप किया जाता हो। जब हमें किसी और से ज्ञात होता है कि अमुक का अमुक नजदीकी रिश्तेदार है, तो हम यह तो समझ लेंगे कि वह उसका नजदीकी है, लेकिन मन में संशय होने लगता है कि क्या वह उसका वास्तव में नजदीकी रिश्तेदार है! दरअसल, वर्तमान परिस्थितियां ही कुछ ऐसी है कि कोई रिश्ता भरपूर शिद्दत के साथ निभाया जाता हो, इसका अनुमान केवल अनुमान बनकर रह जाता है। वर्तमान परिवेश में एक प्रकार से रिश्तों की परिभाषा ही बदल गई है। स्वार्थपरक रिश्तों की भरमार है और हित साधन की दृष्टि से ही हर रिश्ते को लिया जाने लगा है। मैं और बीवी-बच्चे! बच्चे भी जब तक बच्चे रहें, तब तक का परिवार ही बहुतेरों का संसार बनता जा रहा है। सही है कि काफी हद तक रोजगार की दृष्टि से संयुक्त परिवार की अवधारणा मूर्त रूप नहीं ले पा रही है। परिवार के सदस्यों में शैक्षिक असमानता के साथ-साथ धनोपार्जन की क्षमता में अंतर भी एक कारण है, जिसके चलते एकल परिवार का चलन बढ़ने लगा है। एक कारण यह भी है कि इन दिनों फलते-फूलते व्यापार के दौर में व्यापारिक रिश्तों का निर्वहन भी अपरिहार्य होता जा रहा है। और यह काफी हद तक परिस्थितियों के मान से भी आवश्यक प्रतीत होता है। यों परिवर्तन के दौर में हर एक क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव हो रहे हैं। व्यक्ति की पारिवारिक निर्भरता काफी हद तक कम होती जा रही है। ऐसी स्थिति में पारिवारिक रिश्तों के समकक्ष सामाजिक और व्यावसायिक रिश्ते महत्त्वपूर्ण स्थान रखने लगे हैं। हालांकि यह परिवर्तन कचोटता है। None

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