भारत में यह एक आम साझा अनुभव है कि लोगों को उनके वयस्क होने और वृद्धावस्था तक स्कूली परीक्षा से जुड़े बुरे सपने आते रहते हैं। अक्सर लोग अपने स्कूली जीवन के अनुभव के किस्से सुनाते मिल जाएंगे। बहुधा ऐसी यादें या ऐसे सपने किसी परीक्षा को याद करने या फिर उसके छूट जाने, उसमें असफल होने या तैयारी अधूरी होने से जुड़े होते हैं। यह कोई एकाकी और सामान्य घटना नहीं है, बल्कि हमारी शिक्षा प्रणाली और समाज में गहराई तक जड़ें जमाए उन मूल्यों और दबावों का प्रतिबिंब है, जो बचपन से ही हमारे मस्तिष्क पर हावी रहते हैं। ऐसे सपने अनिश्चितता, तनाव और असहायता की गहरी भावना के साथ आते हैं। किसी व्यक्ति को लगता है कि वह समाज की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रहा है, तो यह असुरक्षा उसके सपनों में भी प्रकट होती है। यों भी सपनों का सिरा हमारे अवचेतन से जुड़ा माना जाता रहा है। हमारी शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यह सीखने के बजाय परीक्षा के नतीजों में हासिल किए गए अंकों को अधिक महत्त्व देती है। परीक्षा का उद्देश्य जहां विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास और उनकी क्षमताओं का आकलन करना होना चाहिए, वहीं यह केवल प्रतिस्पर्धा का पर्याय बनकर रह गया है। हर विद्यार्थी को बचपन से सिखाया जाता है कि जीवन में सफल होने का एकमात्र मार्ग परीक्षा में प्राप्त किए गए ‘अच्छे अंक’ हैं। यह मानसिकता शिक्षा का मूल उद्देश्य विकृत करती है और विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डालती है। एक बार परीक्षा की तैयारी और प्रदर्शन का दबाव मस्तिष्क पर छा जाए, तो उसका प्रभाव जीवन भर चस्पां रहता है। इस स्थिति को बदलने के लिए सबसे जरूरी शिक्षा के मूल उद्देश्य को समझना है। शिक्षा जीवन को बेहतर ढंग से समझने और जीने की कला सिखाने का माध्यम है। परीक्षा प्रणाली में सुधार करते हुए इसका स्वरूप कुछ इस तरह तैयार करना चाहिए कि यह विद्यार्थियों की समझ और सोचने की क्षमता का आकलन करे, न कि केवल रट्टा मारकर याद की गई जानकारी का। हमें ऐसे मापदंडों और आकलन प्रणाली की आवश्यकता है जो विद्यार्थियों की आपस में तुलना न करे, कम से कम माध्यमिक स्तर तक। परीक्षा में हासिल किए गए अंक और तुलना पर आधारित आकलन विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क और फिर समूचे व्यक्तित्व पर क्या असर डालता है, यह अब छिपा तथ्य नहीं है। पारंपरिक लिखित परीक्षाओं के स्थान पर वैकल्पिक पद्धतियों, जैसे प्रोजेक्ट से जुड़े कार्य, किताब के साथ परीक्षा, समूह चर्चा और प्रस्तुति की पद्धति को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे विद्यार्थियों को सैद्धांतिक ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक कौशल और सोचने की क्षमता विकसित करने का मौका मिलेगा। विद्यार्थियों को एक परीक्षा में नाकाम होने पर बार-बार मौका मिलना चाहिए। ‘मांग आधारित परीक्षा’ जैसी प्रणालियां, जहां विद्यार्थी अपनी सुविधा के अनुसार परीक्षा दे सकें, परीक्षा के दबाव को काफी हद तक कम कर सकती है। इससे विद्यार्थियों का आत्मविश्वास बरकरार रहता है। परीक्षा में उन सवालों को शामिल किया जाना चाहिए, जिनके एक से अधिक उत्तर हो सकते हैं। ऐसे सवाल विद्यार्थियों को अपने विचारों को व्यक्त करने और अपनी रचनात्मकता दिखाने का अवसर देंगे। इससे रट्टा मारकर पढ़ने की प्रवृत्ति भी कम होगी। सफलता मिलने के साथ ही लोगों की आंखों में चुभने लगता है व्यक्ति, कामयाबी की वजह से बढ़ती जाती है दुश्मनों की तादात यह अपने आप ही स्पष्ट माना जाना चाहिए कि इन सुधारों को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए शिक्षकों का अच्छी तरह से भुगतान अति अनिवार्य है, क्योंकि यह बेहतर कार्य के लिए एक प्रेरक तत्त्व का काम करता है। साथ ही, उन्हें पर्याप्त वक्त और सुविधा भी मुहैया होना चाहिए, क्योंकि रचनात्मक कार्यों के लिए भरपूर मेहनत और समय की जरूरत होती है। शिक्षा तंत्र के अतिरिक्त समस्या अभिभावक और समाज की सोच में भी है। बच्चों को अक्सर अपनी इच्छाओं के विरुद्ध समाज की अपेक्षाओं के अनुसार ढलने के लिए मजबूर किया जाता है। परीक्षा की तैयारी में ‘क्या सीख रहे हैं’ से अधिक ‘कैसे अच्छा प्रदर्शन करें’ पर जोर दिया जाता है। यह रवैया बच्चों के लिए परीक्षा को एक डरावने अनुभव में बदल देता है। उनके अंदर यह डर बैठ जाता है कि असफलता का मतलब व्यक्तिगत नुकसान से बढ़कर परिवार और समाज की उम्मीदों पर भी चोट है। इसलिए भले ही व्यक्ति वास्तविक जीवन में सफल हो जाए, परीक्षा से जुड़ा यह डर और असुरक्षा उसके मन के किसी कोने में बने रहते हैं। माता-पिता और शिक्षकों को भी बच्चों के साथ सहानुभूति और समझदारी से पेश आना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे अपने बच्चों के प्रति अपेक्षाओं को यथार्थवादी बनाएं। प्रयासों को परिणामों से अधिक सराहें। बच्चों को यह विश्वास दिलाएं कि जीवन महज एक परीक्षा से बहुत बड़ा है और असफलता भी सीखने का एक हिस्सा है। साथ ही, उनसे संवाद कर बचपन से मानसिक स्वास्थ्य का महत्त्व सिखाए और परीक्षा के तनाव से निपटने के तरीके बताए जाने चाहिए। अगर शिक्षा प्रणाली के मूल में सर्वांगीण विकास और नैतिक जिम्मेदारी की भावना समाहित हो, तो परीक्षा बोझ के बजाय सीखने की यात्रा बन जाएगी। मन के भीतर दबी वह घुटन, जो बात-बेबात उनींदी रातों को परीक्षा की मेज पर खींच लाती थी, विलीन हो जाएगी। तब जाकर बुरे सपने धुंधलाएंगे और इन आंखों में सुंदर सपनों के लिए जगह बनेगी। None
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