मनुष्यों को जन्म के साथ ही प्राकृतिक रूप से वाणी मिलती है। मनुष्येतर अन्य जीवों को भी वाणी तो किसी न किसी रूप में मिलती ही है, पर मनुष्यों ने जिस रूप स्वरूप में वाणी द्वारा भाषाओं और संगीत को अपने जीवन को अभिव्यक्त करने वाले साधन के रूप में विस्तार दिया, यह बिंदु मानव सभ्यता के विकास और विस्तार का मूल है। मनुष्यों द्वारा अपने मुख से निकली ध्वनि के माध्यम से वाणी को विभिन्न भाषाओं में विकसित करना पृथ्वी के मनुष्यों का सबसे बड़ा सामूहिक कृतित्व, क्षमता या पराक्रम माना जा सकता है। वाणी, बुद्धि और विवेक के साथ ही सुनने की क्षमता अगर मनुष्य के पास न हो, तो मनुष्य बोल ही नहीं पाता। हालांकि यह क्षमता भी किसी में सामान्य, तो कहीं अलग-अलग तरीके से अमूमन सभी जीवों में होती है। वाणी होते हुए भी मनुष्य बोलना न चाहे या मौन रहना चाहे तो यह भी मनुष्य की अपनी प्राकृतिक शक्ति है। यही बात या ध्वनि सुनने को लेकर भी है। श्रवणेंद्रिय सुनने के लिए है, पर सुनना न सुनना यह मनुष्य की इच्छा पर है। कई बार हम कुछ सुन तो रहे होते हैं, मगर उसकी ग्राहता पर हमारा ध्यान नहीं होता, इसलिए वह न सुनने के बराबर हो जाता है। आंखें देखने के लिए हैं, जिसे हम दृष्टि की संज्ञा देते हैं, पर इस देखने की क्षमता से अलग मनुष्य के पास एक अंतर्दृष्टि भी होती है, जिसे मन की आंखों से देखा, सोचा या प्रत्यक्षीकरण किया जा सकता है। अंतर्दृष्टि के लिए न तो प्रकाश की जरूरत होती है, न आंखों की, केवल सोच-समझ और कल्पना शक्ति से निराकार रूप से सारा कुछ सोचा, समझा और मन ही मन प्रत्यक्षीकरण किया जाता है। साकार चीजें देखने के लिए इंद्रियों की या ज्ञानेंद्रियों की क्रियाशीलता जरूरी है। पर निराकार कल्पना मन और बुद्धि का खेल है। प्रकृति प्रदत्त ज्ञानेंद्रियों और मनुष्य की सृजनात्मक और विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों की निरंतर जुगलबंदी ने आज की दुनिया को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है कि जहां तक पहुंच कर हम समूची सभ्यता की सृजनात्मक शक्ति बढ़ा और नष्ट-भ्रष्ट भी कर सकते हैं। अब वापस फिर प्रागैतिहासिक सभ्यता में कोई एक व्यक्ति या समूचा मानव जगत भी नहीं पहुंच सकता। फिर भी आदिम से लेकर आज तक की कई सभ्यताएं एक साथ इस पृथ्वी पर कहीं न कहीं अपने मूल अस्तित्व को बचाए रखने का अंतहीन संघर्ष करती दिखाई पड़ सकती है। मनुष्य कृत सभ्यताओं की समूची कहानी मनुष्य के सोच, विचार और कृतित्व का कमाल है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक और भविष्य में भी मनुष्य ने अपने जीवन में निरंतर बदलाव करते रहने की दिशा में बढ़ते रहकर सृजनात्मक प्रवृत्तियों को अपने जीवन का अनिवार्य अंग बनाया है, जो आज के और भविष्य के मनुष्य के सामने एक तरह से नित नई चुनौतियों की तरह आ खड़ा हुआ है। पर मनुष्य को सृजनात्मक और विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों, दोनों को अपनाने में शायद एक अलग तरह का आनंद आता है। निरंतर चुनौतियां सामने न हों तो मानव सभ्यता को आगे बढ़ने का अवसर ही न मिले। यह सिद्धांत भी सामान्य रूप से माना जा सकता है। मनुष्य की वाणी मूल रूप से ध्वनि के रूप में तो आमतौर पर एक समान ही प्रतीत होती है, पर किस समय किस रूप-स्वरूप और भाव के साथ वाणी का प्रयोग हुआ है, यह वाणी का प्रयोग करने वाले और वाणी को सुनने वाले मनुष्य के मध्य वाणी के प्रत्यक्षीकरण को निर्धारित करता है। भाषा से अपरिचित अबोध बालक अपनी माता या अपने पिता या अन्य निकटवर्ती संबंधियों के भाव और आशय को समझने की प्राकृतिक क्षमता रखता है। यह समूचे मनुष्य जीवन या सभ्यता की अनोखी ज्ञान क्षमता है। तो क्या दृष्टि से मिलने वाले अबोध बालक के ज्ञान और समझ की क्षमताओं के विकास का मूल मनुष्य की देखने-सुनने और समझने की क्षमताओं या प्रत्यक्षीकरण से प्रारंभ होती है। यह भी हमारे सोच-समझ का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। मानव सभ्यता में भाषाओं से ही समूची ज्ञान-यात्रा का उदय हुआ और साहित्य संस्कृति तथा सृजनात्मक सभ्यता के अंतहीन आयामों का रूप-स्वरूप मानव सभ्यता के स्थायी भाव बने। पर भाषा का ध्वनि स्वरूप और लिपि स्वरूप भी मानवीय सभ्यता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। लिपि से जो ज्ञान-यात्रा प्रारंभ हुई, उसने समाज को दो रूप और स्वरूपों में विभाजित कर दिया। पढ़े-लिखे और बिना पढ़े-लिखे। बिना पढ़े-लिखे मनुष्य भाषा के ध्वनि-स्वरूप को तो अच्छे से समझते, जानते और बोलते हैं, पर लिपि स्वरूप को नहीं जानते या पढ़ पाते। इस तरह ज्ञान की इस परंपरा में मानव समाज में फिर से एक भेद का उदय हुआ। पढ़े-लिखे और बिना पढ़े-लिखे या निरक्षर मनुष्य। ज्ञान मनुष्य समाज को निश्चित ही विकसित करने में मदद करता है, पर अज्ञात और अज्ञान भी मनुष्य समाज को और अधिक खोजने की दिशा में प्रेरित करता है। इसे प्रकारांतर से ज्ञान का हिस्सा माना जाना चाहिए कि व्यक्ति के भीतर इतना विवेक है कि वह कुछ नया खोजने की ओर प्रवृत्त होता है। ज्ञान, अज्ञान और अज्ञात- तीनों को ही समूची मानवीय सभ्यता की मूल आधारभूमि की तरह से ही समझा, सोचा और माना जा सकता है। मानव सभ्यता ज्ञानेंद्रियों और मनुष्य निर्मित अंतहीन विचारों की अनोखी शृंखला हैं, जो साकार और निराकार जगत की चेतना से सदियों से मानव सभ्यता की तरंगों को आगे भी बढ़ा रहा है और कालक्रमानुसार लुप्त भी कर रहा है। None
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