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दुनिया मेरे आगे: सिमटती संवेदनाएं और संबंधों के बदलते मायने, जब रिश्ते दूर हों, तो खुद से करें दोस्ती

जीवन में कुछ ही लोग होते हैं जिनसे हम बेझिझक अपनी बात कह सकते हैं। उनसे मिलने पर मन को एक अजीब-सा सुकून मिलता है। लगता है जैसे अपने भीतर की हर बात खुलकर साझा कर सकते हैं। जब तक ये लोग साथ रहते हैं, हमें लगता है जैसे हमारी दुनिया में कोई ऐसा है जो हमें समझता है। मगर जैसे-जैसे समय बीतता है, उम्र बढ़ती है और अनुभवों का भंडार गहरा होता जाता है, वैसे-वैसे ये संबंध भी बदलने लगते हैं। एक समय था जब बातों का सिलसिला बिना रुके चलता रहता था, जहां किसी मुद्दे पर घंटों बातें की जा सकती थीं। अब वही बातें, वही रिश्ते धीरे-धीरे सिमटते जा रहे हैं। किसी से बात करते हुए हम अक्सर ‘हां’, ‘हूं’, या ‘ठीक है’ जैसे शब्दों में ही सीमित हो जाते हैं। समय के साथ हमारे पास मिलने-जुलने का समय भी सीमित होता जाता है। दोस्ती जो कभी विस्तृत थी, अब अपने दायरे में सीमित हो रही है। जिन मुद्दों पर हम बेझिझक घंटों बहस कर सकते थे, अब वही बातें महज औपचारिकता में बदल रही हैं। जब रिश्तों में इतनी दूरी आ रही है, तो उनसे कोई अपेक्षा रखना निरर्थक है। ऐसा महसूस होने लगता है जैसे हमारी भावनाओं को समझने वाला अब कोई नहीं है और ऐसी स्थिति में हम खुद ही अपने सुख-दुख का संबल बन जाते हैं। इसके बाद जो खामोशी आती है, वह धीरे-धीरे हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती है। हम ऐसा मान लेते हैं कि अपनी बातों को साझा करना अब मुमकिन नहीं है। यह खामोशी हमारे अंदर की एक ऐसी स्थिति होती है, जहां हम दूसरों से ज्यादा अपने आप से बातें करते हैं। अपने विचारों और भावनाओं में खुद को ढूंढ़ने लगते हैं। शायद यही कारण है कि हम अपनी बातों को, खुशियों को और अपने दुखों को अंदर ही अंदर समेटकर रह जाते हैं। कोई हमें समझे या न समझे, हमें उससे फर्क पड़ना बंद हो जाता है। यह बदलाव हमें शांत, गंभीर और एक तरह की तटस्थता की ओर ले जाता है। हमारे भीतर धीरे-धीरे एक ऐसा भाव पैदा होता है जहां हम दूसरों के दृष्टिकोण का सम्मान करना सीख जाते हैं। भले ही हम अपने विचारों में सही हों, फिर भी हम सोचते हैं कि सामने वाला अपने नजरिये से सही होगा। किसी भी विवाद में अपनी बात को सही साबित करने की इच्छा हमें अब उतना संतोष नहीं देती। यह अनुभव सिखाता है कि रिश्तों को निभाने के लिए खुद को थोड़ा झुकाना पड़ता है। लेकिन कई बार यह झुकाव भी संबंधों को पूरी तरह बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं होता। हम अपने आप को बदलने की कोशिश करते हैं, लेकिन जब सामने वाला हमारी भावनाओं को न समझे तो एक दिन यह अहसास होता है कि रिश्ते भी एक समय के बाद खोखले हो जाते हैं। बढ़ती उम्र और अनुभव हमें एक गहरी खामोशी की ओर ले जाते हैं, जहां किसी से अपेक्षा रखना, अपने मन की बात साझा करना हमें व्यर्थ लगने लगता है। हमें यह अहसास होता है कि जिनसे हमने कभी अपने रिश्तों पर गर्व किया था, वे अब दूर हो चुके हैं। हम समझते हैं कि इन रिश्तों का आधार अब पहले जैसा नहीं रहा। एक समय था जब हम अपने करीबी लोगों से उम्मीद रखते थे, लेकिन अब हमें यह समझ आने लगता है कि ये अपेक्षाएं ही हमें दुखी करती हैं। इस बदलाव के साथ ही हमें यह भी समझ में आता है कि जीवन में सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता हमारा खुद से है। जब हर कोई हमसे दूर हो जाता है, तब यह समझना जरूरी हो जाता है कि हम अपने सबसे अच्छे दोस्त खुद हो सकते हैं। अपने आपको स्वीकारना और सराहना ही वह सच्चा सुकून है जो हमें भीतर से मजबूती देता है। जीवन के इस सफर में जब भी मन उदास हो और कोई समझने वाला न हो, तो खुद की पीठ थपथपाना जरूरी हो जाता है। यह अहसास करना कि हम अपने जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं और दुनिया में सबसे ज्यादा प्रेम का हकदार खुद हैं। अपनी खुशियों और अपने दुखों को खुद समझना, उन्हें खुद संभालना ही असली ताकत है। जीवन में आत्मनिर्भरता का यह भाव हमें भीतर से मजबूत बनाता है। यह हमें सिखाता है कि हमें किसी और पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। जब तक हम दूसरों से उम्मीद करते हैं, तब तक हम अपने आप को कमजोर बना देते हैं। इसलिए हमें खुद पर भरोसा करना सीखना चाहिए। यही आत्मप्रेम और आत्मनिर्भरता यह समझने में मदद करती है कि हम अपने जीवन के सबसे अच्छे साथी खुद हैं। आदर्श स्थिति यह है कि हमारे दुख के पलों में हमारे दोस्त हमें कमजोर न महसूस होने दें, लेकिन खुद को इतना मजबूत करना जरूरी है कि जीवन में जब किसी से निराशा मिले और कोई हमारा साथ छोड़ दे, तो हम अपने आप को संभालने का हौसला खुद ही दे लें। अपने आप से उम्मीद रखना, अपने आप को प्यार करना हमें जीवन की हर मुश्किल का सामना करने की ताकत देता है। असली खुशी और सुकून बाहरी दुनिया में नहीं, बल्कि हमारे अंदर है। जब हम अपने आप को अपनाते हैं, अपने आप से प्यार करते हैं, तो हमें किसी और की जरूरत महसूस नहीं होती। जीवन का असली अर्थ खुद में ढूंढ़ना चाहिए। किसी और से अपेक्षा रखने के बजाय सबसे पहले खुद ही अपना सबसे अच्छा दोस्त बनना चाहिए। जब हम अपने अंदर शांति और संतोष ढूंढ़ लेते हैं, तब बाहरी दुनिया की कोई भी नकारात्मक परिस्थितियां हमें तोड़ नहीं पातीं। जीवन में हमारा सबसे बड़ा साथी अपना आत्मविश्वास, आत्मप्रेम और आत्मनिर्भरता है। None

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