हर इंसान अपनी बनाई दुनिया में जीता है। उसकी उस दुनिया को केवल वही देख सुन सकता है, उसमें जी सकता है। किसी भी दूसरे व्यक्ति को उसकी उस दुनिया में जाने की अनुमति तब तक नहीं होती, जब तक वह इंसान खुद न चाहे। कई बार ऐसा भी होता है कि चाहते हुए भी वह इंसान अपनी उस दुनिया के विषय में किसी से कुछ कह नहीं पाता या सामने वाले व्यक्ति को उस दुनिया के विषय में समझा नहीं पाता और दुनिया वाले उसे पागल समझने लगते हैं। जबकि लोग भी यह बात जानते हैं कि इतनी बड़ी इस दुनिया में उनकी भी अपनी एक छोटी-सी दुनिया है, जिसमें वे हर रोज जीते हैं। इसके बावजूद वे सामने वाले के मनोभावों को समझने में असमर्थ ही रहते हैं। शायद वे खुद भी यह बात समझ नहीं पाते कि वे खुद जिसमें जीना पसंद कर रहे हैं, वह उनकी खुद की एक अलग दुनिया है। ‘पर्पल दुनिया’ उसी दुनिया को कहते हैं। ऐसा नहीं है कि उस दुनिया में हर एक चीज का रंग बैंगनी है। यहां इस रंग से तात्पर्य ‘हीलिंग’, यानी उपचार से है, सुकून या शांति से है। यानी एक ऐसी दुनिया, जिसमें जाकर किसी के मन और विचारों को शांति मिले। जहां जाकर कुछ भी सोचने-विचारने पर किसी तरह का कोई बंधन न हो, लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे, जैसे कोई बंधन न हों। जहां व्यक्ति पूर्ण रूप से अपने विचारों के साथ जिए। जो बाहरी दुनिया से मिले घावों का उपचार करने, उन्हें भरने में हमारा सहयोग करे, हमारे दिमाग को शांति प्रदान करे, कुछ देर या पल के लिए ही सही, जीवन के तमाम झंझटों और परेशानियों से हमें मुक्त कर दे, जहां किसी तरह का कोई दबाव न हो, ऐसी सबकी एक अलग दुनिया को ही ‘पर्पल दुनिया’ कहते हैं। मसलन, शराब पीने वाले लोगों को अक्सर ऐसा लगता है कि वह नशा करके अपने तमाम दुख-तकलीफों से मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही किसी के लिए किसी भी प्रकार का नशा या आसक्ति उसे उसकी एक अलग दुनिया में ले जाता है। वीडियो गेम की दुनिया आजकल बच्चों से लेकर युवाओं तक, सभी की आसक्ति बनी हुई है और लोग अपने होश खो बैठे हैं। इसमें इतना खो चुके हैं कि सच्चाई और भ्रम में अंतर भूल गए है। आज उनकी यह आसक्ति उनके लिए एक मनोरोग बन चुकी है। सिर्फ एक यही दुनिया ऐसी नहीं है, बल्कि और भी कई सारे क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें उलझकर इंसान मनोरोग या इस तरह की स्थिति का शिकार बनता चला जा रहा है। दुनिया मेरे आगे: हर सुर का होता है संदेश, फेरीवाले से लेकर बड़े संगीतकार की है अपनी कला कई बार कोई पुराना हादसा या दुर्घटना भी इंसान के मन में ऐसी घर कर जाती है कि वह खुद को ही उस घटना या दुर्घटना का दोषी मानने या समझने लगता है और अपराधबोध से इस गहराई तक डूब जाता है कि एक अलग ही दुनिया में जीने लगता है। उस दुनिया में बहुत से लोग अपने आप से घंटों बातें करते है, तो कुछ लोग डरने लगते हैं। कुछ को वह सब दिखाई देने लगता है जो वास्तव में होता ही नहीं। ऐसे लोग साधारण दुनिया के विपरीत सोचते है। उन्हें असल दुनिया बुरी लगती है। वे अपनी ‘पर्पल दुनिया’ में ही रहना चाहते हैं। यों तो हम इंसान अपने दिमाग को अपने वश में करके जीना जानते हैं, लेकिन ये वे इंसान होते हैं, जिन्हें उनका दिमाग अपने वश में कर लेता है। साधारण तौर पर अगर देखा जाए तो हम सामान्य इंसानों की भी तो एक अपनी दुनिया होती है, जिसमें हम जीना चाहते हैं। जो जीवन में किसी कारणवश कर न सके या बन नहीं सके, उसकी कल्पनाओं में खो जाते हैं। जिन बातों या सपनों में जाकर हम वह बन जाते हैं जो हम बन नहीं पाए और शायद आज भी कहीं न कहीं सामाजिक दबाव, या यों कहें कि पारिवारिक बंधनों के चलते, चाहते हुए भी बन नहीं सकते और तब कहीं न कहीं मन के किसी कोने में हम भी एक अपनी दुनिया बना ही लेते हैं। दुनिया मेरे आगे: कला का असली लक्ष्य, सौंदर्य से आगे संदेश और बदलाव तक पहुंचने की चुनौती देखा जाए तो इस विषय के पीछे एक बड़ा और मुख्य कारण है अकेलापन। आज की इस भौतिक दुनिया में जहां बच्चों से लेकर वृद्धजनों तक हर कोई अकेला है, वहां शांतिपूर्वक जीने के लिए या सिर्फ जीने के लिए हर किसी को कोई चाहिए अपने मन की कहने या अपने अनुसार जीने के लिए। दरअसल, आज की इस भौतिक दुनिया में सब इतने अकेले और परेशान हैं कि कोई किसी को स्वीकार नहीं करना चाहता। शायद यही वजह है कि हर कोई मुखौटा लगा कर घूमता है और फिर भी उसे जब यह भौतिक दुनिया नहीं स्वीकार करती तो वह अपनी अलग दुनिया बना लेता है। एक ऐसी दुनिया, जो पूर्णरूप से भावनात्मक या मानसिक होती है, जहां वह यह कल्पना करने लगता है कि वह अपनी बनाई हुई उस दुनिया का राजा है और उसकी उस दुनिया में सभी लोग उस जैसे ही हैं, जहां कोई किसी के प्रति किसी प्रकार की धारणा नहीं बनाता। धीरे-धीरे यह दुनिया इतना विस्तार पकड़ लेती है कि एक अच्छा खासा व्यक्ति मनोरोग का शिकार हो जाता है और किसी को भी पता ही नहीं चलता। कई बार ऐसा लगता है कि हमें पीछे लौटने की जरूरत है, लेकिन एक बार जो समय चला गया, वह लौटकर नहीं आता। हम चाहें भी तो पुराने मोहल्ला संस्कृति में नहीं लौट सकते, क्योंकि ताली एक हाथ से नहीं बजाई जा सकती, लेकिन हम अपने घरों में अपनों को इस अकेलेपन से बचा जरूर सकते हैं। उनसे बात करके उनको सुनकर, उन्हें समझने की कोशिश करके! बोलना-बतियाना ही अकेलेपन और इससे उपजी मुश्किलों की समस्या का समाधान है। सिर्फ बोलना ही नहीं है, सुनना और समझना भी है, ताकि जब हमारी बारी आए तब हमें भी कोई सुनने-समझने वाला हो। None
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